ईचागढ़ : सरायकेला-खरसावां जिला के ईचागढ़ व कुकड़ू प्रखंड क्षेत्र में भी दिपावली और बंदना सोहराई पर्व का पारा चढ़ने लगा है. दिपावली, बंदना और सोहराई पर्व के लिए धनतेरस का बाजार सज चुका है. लोग खरीदारी में मशगूल हैं. इस सब रिवाजों से दूर ओड़ समाज के लोग अपने बांस से बने टोकरी, सूप, खांची बनाने में व्यस्त हैं. मांग के अनुरूप हाथ से बने बांस के समान की तैयारी सिर्फ बुड़े बुजुर्ग ही कर रहे हैं. इस कारण से बहुत कम संख्या में ही टोकरी तैयार कर पा रहे हैं.
युवा पीढ़ी नहीं बढ़ा रहे हाथ
पढ़े-लिखे और नया युवा पीढ़ी हाथ से बांस का काम करने या बुजुर्गों का मदद करने में भी हाथ नहीं बंटा रहे हैं. पर्व त्यौहारों में आज भी बांस की सूप, टोकरी आदि का काफी मांग रहती है. समय के साथ बदलते जमाने में औजारों से बांसों को छीलकर बनाने की पुरानी परम्परागत शिल्पकारों की घोर कमी देखी जा रही है. ईचागढ़ के दुलमीडीह, चोगा, कुईडीह, चीतरी आदि गांवों में परम्परागत रूप से बांस से बने सामानों का निर्माण करते हैं.
हस्त शिल्पकारों को सहायता नहीं
नए जेनरेशन इस घरेलू कुटीर उद्योग से नाता तोड़ रहे हैं. आधुनिकता की इस दौड़ में युवा वर्ग नये तकनीक से और मशीन आदि लगाकर बांस को छीलने और बुनने का कार्य करने का सपना पाले हुए हैं. ऐसे में सरकार को परम्परागत बांस के हस्त शिल्पकारों को प्रशिक्षण देकर नये तकनीक से सामान बनाने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर नये युवा पीढ़ी को इस परम्परा से जोड़कर स्वरोजगार से जोड़ने की पहल करने की जरूरत है. बांस से बने सामानों का निर्माण में लगे परम्परागत कारीगरों ने बताया कि एक दिन में दो से तीन ही टोकरी का निर्माण कर पाते हैं.
मजदूरी निकाल पाना भी मुश्किल
बांस भी महंगे दामों में खरीदना पड़ता है. इससे मजदूरी भर ही निकल पाती है. शशधर माहली व पुस्की माहली ने बताया कि हम परिवार के साथ मिलकर टोकरी, सूप आदि का निर्माण करते हैं. सरकार से किसी भी तरह की सहायता नहीं की जाती है. किसी तरह मजदूरी भर ही निकल पाता है. उन्होंने कहा कि बेचने के लिए हाट-बाजारों में लेकर जाना पड़ता है. बाजार भी उपलब्ध नहीं है. उन्होंने कहा कि आज के युवा पीढ़ी इस काम को करना नहीं चाहते हैं. सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए.