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आदिवासी समाज को पुनर्जीवित करने की जरूरत- सालखन
झारखंड प्रदेश में सोरेन खानदान इसका एक दुर्भाग्यपूर्ण खोखला उदाहरण है. उसी प्रकार हजारों आदिवासी जन संगठन हैं जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उन्हीं पार्टियों और नेताओं के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हैं जिनका आदिवासी समाज के एजेंडा, एकता और समाज सुधार से कोई लेना-देना नहीं है. अभी जहां-तहां आदिवासी जन संगठन कुर्मी महतो के आदिवासी बनने के जद्दोजहद का विरोध तो कर रहे हैं. मगर उन पार्टियों का विरोध नहीं करते हैं जो कुर्मी महतो को आदिवासी बनाने का अनुशंसा कर चुके हैं. यह दोगलापन भी आदिवासी समाज के साथ भीतरघात नहीं तो क्या है? ओल चिकी हूल वैसी के नाम से कुछ ऐसे ही नेता संताली भाषा और उसकी लिपि-ओल चिकी के लिए अचानक एक दिन का झारखंड बंद किया. फिर उसी संताली भाषा और ओल चिकी विरोधी झामुमो सरकार के साथ चिपक जाना संताली भाषा, ओल चिकी लिपि और आदिवासी समाज को धोखा देना नहीं तो क्या है? अब हूल वैसी मैदान से गायब है. ऐसी पार्टियों, नेताओं और संगठनों से आदिवासी समाज के अस्तित्व को बचाने और पहचानने का समय आ गया है. आज मरांग बुरु, लुगु बुरु, अजोध्या बुरु, रजरप्पा आदि के बर्बादी के लिए सभी दोषी नेताओं, संगठनों को केवल पहचाने की नहीं, लात मारने की भी जरूरत है. दोगले आदिवासी नेताओं और संगठनों से आदिवासी समाज को बचाना आज सभी ईमानदार समाज प्रेमियों का अहम दायित्व है. आदिवासी सेंगेल अभियान के अनुसार पार्टियों को दोष देना बेकार है. पार्टियां तो वोट और सत्ता के लिए सबकी बात करते ही रहेंगे. मगर असली दोषीदार तो आदिवासी नेता और आदिवासी जन संगठन हैं. जो आदिवासी एजेंडा, एकता और समाज सुधार की बात नहीं करते हैं. इन्हें बेनकाब करते हुए महान आदिवासी समाज और संस्कृति को बचाने की चुनौती को स्वीकार करना होगा. एजेंडा आधारित आदिवासी जन एकता और जन आंदोलन से जरूर सफलता हासिल किया जा सकता है। परन्तु प्रथा-परंपरा के नाम पर जारी कतिपय गलत रूढ़िवादिता को तर्कशीलता और संविधान की कसौटी पर कसना भी जरूरी है. अन्यथा आदिवासी समाज से नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, ईर्ष्या द्वेष, महिला विरोधी मानसिकता, राजतांत्रिक स्वशासन व्यवस्था, बहुमूल्य वोट की खरीद बिक्री जारी रहेगा.
जमशेदपुर : आदिवासी समाज और संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए आदिवासी समाज को नए सिरे से सोचना और चलना पड़ेगा. देश की आजादी के बाद अधिकांश आदिवासी नेता आरक्षण का लाभ लेकर पद, प्रतिष्ठा और सत्ता का लाभ जरूर लिया है, मगर आदिवासी समाज के संरक्षण और समृद्धि में उनका योगदान नहीं के बराबर है.