कोलकाता : पश्चिम बंगाल में जब भी चुनाव की बिगुल बजती है तब–तब हिंसा होती है. इस बार भी पंचायत चुनाव का नामांकन के दिन ही गोली मारकर कांग्रेस नेता की हत्या कर दी गयी. हत्या के बाद बवाल हो रहा है, लेकिन यह कोई नयी बात नहीं है. पश्चिम बंगाल के आंकड़े पर पर गौर करें तो इस तरह की घटना बिल्कुल सामान्य है.
पश्चिम बंगाल में चुनावी संस्कृति का हिस्सा बन गयी है हिंसा
पश्चिम बंगाल में हिंसा की बात करें तो वह चुनावी संस्कृति का हिस्सा बन गयी है. ऐसा आंकड़ों के लिहाज से कहा जा सकता है. चुनाव के पहले बाहुबली गतिविधियां बढ़ जाती है.
क्या कह रहे हैं आंकड़ें
वर्ष 2018 की बात करें तो पंचायत चुनाव के बाद हिंसा दिखने को मिली थी. 2021 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी हिंसक घटनायें सामने आयी थी. पश्चिम बंगाल में 1999 से लेकर 2016 के बीच 20 राजनीतिक हत्यायें हुई थी. 2009 की बात करें तो 50 हत्यायें हुई थी. उस साल 2 मार्च से लेकर 21 जुलाई के बीच 62 हत्यायें हुई थी. 1989 में मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे. तब उन्होंने विधानसभा में आंकड़ा पेश किया था और कहा था कि 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हुई है. इसमें से 34 सीपीएम के थे और 19 कांग्रेस पार्टी के थे. आंकड़े में वाममोर्चा और घटक दल के कार्यकर्ता भी शामिल थे. तब बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगान की भी मांग की गयी थी. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया था कि 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी. एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई. हत्या के मामले में बंगाल देश भर में पहले स्थान पर रहा.
सिद्धार्थ रे से शुरू हुई थी हिंसक घटनायें
1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ था. 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी थी. 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाक़ों में भारी हिंसा हुई थी.